Wednesday 14 August 2019

जीने को ये प्रेम काफी है


कल शाम जल्दी सोने चली गयी थी| जागने का फायदा क्या था? जी उठा जा रहा हो तो काम तो होते नहीं कुछ! फिर क्या पढ़ाई और क्या कड़ाही?

न खाना बनाया, न किताब खोली|

बस अनमन पड़ी रही|

आदत है, सोने के पहले कुछ सुनने की| प्लेलिस्ट लगा कर छोड़ी, तो बैरन वहां भी चली आई ये याद... आँख लगने को ही थी कि वजाहत हुसैन खां बदायुनी की आवाज़ में ‘काहे को ब्याही बिदेस’ बज उठा|

फिर नींद नहीं आई| तारिख़ किसी कर्ज़ख्वाह की तरह ज़ेहन के दरवाज़े पीटती रही, जब तक उठकर बैठ न गयी मैं|

मन जब उचटा हो तो सबसे रूखा उन्हीं से हुआ जाता है जिनके लिए सबसे अधिक टीसता है| इसलिए घर भी बात नहीं की|

राखी है|

परदेस है|

याद है|

नज़र में घर है|

घर में भाई है|

घर में भाभी है|

घर दूर है|

नज़र में घर है|

नज़र में घर तिरा-तिरा सा है|

बस इसीलिए मन उचटा है|

थाली सजी तो होगी, रेशम की राखी रखी तो होगी| थाली के बायें कोने में समृद्धि का रोली-चावल होगा, जो बहन भाई के माथे चढ़ाती है— एक बगल शुभ का नारियल होगा, जो बहन भाई के हाथ में धरती है— एक बगल मीठा रखा होगा, जो बहन भाई के जीवन में घोल देना चाहती है— और किनारे, आधी थाली से लटकती, आधी टिकी-सी धरी होगी मेरी राखी— मेरे भाई की कलाई बंधने वाले मेरे वादे, बंधन, प्रेम, टीस, अपनाइश और एके के डोरे!

घर भरा होगा| मौसियों, भाभियों, बहनों से|

वहां वो सब याद करते होंगे, यहाँ मैं— परदेस वो सब कुछ दे सकता है जो देस नहीं दे सकता, बस घर नहीं दे सकता|

छोटे होने में बहुत खोट हैं... और सबसे बड़ा खोट ये कि सारा घर सबसे ज्यादा प्यार आप से ही करता है| पलकों पर रखता है, हाथों में पालता है|

बरगद की छाया जैसे पिता और बड़े भाई धूप का काँटा चुभने नहीं देते और अम्मा और भाभी अपने प्रेम के पानी खाद से खिलाये रखती हैं|

पर बरगद तले खिल रहे फूल कई बार माली जड़ से निकाल कर खुले आसमान में रोप देता है|

कुछ फूलों का छाँह से निकलना ज़रूरी होता है|

मैं अच्छी जगह हूँ| ज़मीन बहुत सख्त है, धूप कड़कती तेज़ लेकिन हवा ठंडी है| दिन भर दौड़ा-दौड़ा कर बेदम करने के बाद हौले से थपक भी देती है|

और दिन न बेदम होना खलता है, न थकना, न भीड़ में अकेला होना... सच कहूं तो और दिन यही ताकत बनकर दौड़ते हैं नस में- बस ये कुछ दिन होते हैं जिन पर तन यहीं छोड़कर मन हज़ारों मील की उड़ान भरता है और चला जाता है अम्मा के द्वारे| जा अटकता है भाई की कलाई पर, भाभी के पल्ले में, बाबा की मुस्कान में...

कितना कुछ कहना चाहता है न मन फिर, कि दुनिया के हर उस एक ताने को जो मेरे हिस्से का था, हज़ार-हज़ार उन सवालों को जो बाँध दिए समाज ने हर लड़की के दामन में—

“इतना पढ़ाकर कौन डॉक्टर बनाना है?;  “लड़के नहीं मिलेंगे!”; “ब्याह नहीं होगा!”; “दिमाग खराब कर दिया है!”; “सिर पर चढ़ा लिया है!”; “पढ़ाई तो ठीक है पर रंग रूप भी देखो ज़रा, लड़की है आखिर!”;

—को मुझ तक न आने देने के लिए, मेरी चिंता के साथ, इन दंशों को भी अपने-आप पर झेलने के लिए, सिर्फ शुक्रान अदा कर सकता है ऊपर वाले का, कि ऐसा परिवार दिया- ऐसा भाई दिया, ऐसे नाते दिए!

देने के लिए फिर और बचता क्या है? क्या दिया जा सकता है इस प्रेम के बदले, सिवाय प्रेम के?

प्रेम का पूरक सिर्फ प्रेम हो सकता है, जो भेज रही हूँ मैं, टोकरी भर-भर!

खलिशों, दूरियों को हम दोनों ओर से थोड़ा-थोड़ा भरेंगे|

विडियो कॉल करेंगे, सुंदर सजेंगे, इंडियन कम्युनिटी में जायेंगे, सवेरे झंडा लहरायेंगे और दोपहर से लग जायेंगे यूनिवर्सिटी की लाइन में!

तस्वीर भी लगा देंगे फेसबुक पर|

फासले पाटने को ज़रूरी थोड़े है कि दूरी भी तय की जाये, बस इस विश्वास का होना काफ़ी है कि प्रेम है, अगाध है और रहेगा| इसी के भरोसे परदेस में भी अकेले नहीं हूँ, और वहां नहीं होकर भी हूँ| जीने को ये प्रेम काफी है! 

ये प्रेम मेरी ताकत है, नेमत है, नूर है— सबकुछ है!





Saturday 5 November 2016

बिकाऊ बताने को सिर्फ वैश्या नाम ही क्यों?

NDTV पर बैन लगा है। एक चौबीस घंटे का, 9 नवंबर की दोपहर एक बजे से 10 नवंबर की दोपहर एक बजे तक का।

आप सोशल मीडिया का कोई पन्ना, कोई फोरम, कोई पोस्ट और कोई अकाउंट उठा लीजिये, बैन है, बाग़ है और बहार है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, उसकी ही लड़ाई है। लड़ाई सिर्फ एक चैनल की नहीं है, बल्कि उस डर की है जो सबके ज़हन में कुंडली मारे बैठा है। आज NDTV तो कल वो खुद भी हो सकते हैं। यहाँ कोई तटस्थ नहीं, सबका एक पक्ष है। कमसकम, किसी को भी समय को अपने मौन का हिसाब तो नहीं ही चुकाना पड़ेगा।

जैसे रवीश ने कहा, सवाल पर सवाल हैं। पर यहाँ बात सिर्फ सवाल की नहीं, सवाल के तरीके की भी है।
पक्ष वाले रवीश के शुक्रवार के कार्यक्रम से उम्मीद के हिंडोले में झूल रहे हैं और विपक्षी उसे नौटंकी बता कर तमतमा रहे हैं।

यहाँ तक भी सब ठीक था।

पर फिर आये काफ़िये मिलाने के दौर। NDTV को रंडीटीवी बताया गया। पाकिस्तान और कांग्रेस समर्थक बताया गया, माफ़ कीजियेगा 'पोर्किस्तान' समर्थक बताया गया। प्रेस तो जाने कबसे प्रेस्टीट्यूट है ही।

तो सवाल यहाँ ये है कि क्या आपके पास किसी को बिकाऊ बताने के लिए वैश्या से बेहतर कोई उपमा नहीं? या औरत आपको इतनी सस्ती लगती है कि आप जब चाहें, जैसे चाहें उसे गाली बना दें?

क्या ऐसी तुलनायें करते वक़्त आपके ज़हन में एक बार भी ख्याल आता है कि आप समाज के एक पूरे तबके को, जिसकी बेहतरी के लिए कुछ समाज सेवक अपना सारा जीवन होम कर देते हैं, बीसियों साल पीछे धकेल देते हैं? आप उन्हें दुत्कार कर उनसे ये कह देते हैं कि उन जैसों की ज़िन्दगो की कोई वक़त नहीं। 

वैश्या होना, उसकी ज़िन्दगी जीना, उसका तिनका भी समझ पाना आप सोफा-परस्त वाइट-कॉलर, शरीफ लोगों के बस की बात नहीं। जिन गलियों से गुज़रने में आपके जूते अपवित्र हो जाते हैं, और जिन चौखटों पर जाने कितने इज़्ज़तदारों की इज़्ज़त धूल चाट रही होती है, आपमें से किसी में इतना दम नहीं की उस चौखट की सिसक को सुन सके।

बेईमान बिकते हैं, जानेमन। वैश्या तो धंधा करती है क्योंकि उसके पास दूसरा रास्ता नहीं होता। पर आपकी  अंध-भक्ति आपको ये देखने नहीं देगी। रांड कह देने भर से किसी का किरदार नहीं तय होता। इंसान के  किरदार उसकी नियत तय किया करती है।

भारत माता की जय न बोलने पर आप बवंडर उठा सकते हैं, लेकिन अपनी ही भाषा में औरत को गाली बनाते आपको मिनट नहीं लगता। आपके इस दोगलेपन से मितली आती है मुझे।

कभी अपने महंगे जूते लेकर उतरना उन बदनाम गलियों में। सड़ांध, पसीना और घुटन की बू एक साथ दिमाग झन्ना देगी। बीमारी, मजबूरी और लाचारी देखने के लिए किसे के सीने से आँचल खींचना नहीं पड़ेगा। वो तो वहां की हर आँख का काजल है। वहां के चेहरे पिक्चरों जैसे चमकते नहीं, उनपर अमूमन चोट के दाग हुआ करते हैं। वो चोटें जो उनके सालों के शोषण की गवाह हैं। उनके जिस्म इसी लाचारी, बीमारी और गंदगी की भट्टी में रोज़ भुनते हैं।

पर जानते हैं, उनकी आत्मा फिर भी आपसे कहीं उजली है।

क्योंकि वो अपने आप को गाली नहीं मानती। वो फौलाद की तरह जीती हैं, और हिम्मत रखती हैं अपने बच्चों को उस आग से बाहर भेजने के सपने देखने की। रोज़ बिकती हैं, ताकि उनके बच्चे न बिकें। माँ कोई भी हो, अपने बच्चे के लिए एक जैसा ही किलसती है।

जिस देवी के आप उपासक हैं, जिसे आप जगत-जननी कहते हैं, माँ कहते हैं, और जिसकी भक्ति से आप अपना आँगन ही नहीं, पूरा मोहल्ला गुंजायमान रखते हैं, उस देवी की प्रतिमा इस वैश्या के आँगन की मिट्टी के बिना पूजनीय नहीं मानी जाती। उस वैश्या की दान की मिट्टी पर पनपती है आपकी भक्ति! और आप उसे गाली बनाने के अलावा कुछ नहीं दे पाते।

जागिये जानेमन, वरना आप जिस पक्ष-विपक्ष की लड़ाई में दूसरों को कैरेक्टर सेर्टिफिकेट बांटने में सवेरे को शाम किये जा रहे हैं, वही लड़ाई आपको खुद कितना खोखला कर रही है, ये आप जान भी नहीं पाएंगे।

ये वो वक़्त है जब खुद का किरदार बचाना सबसे मुश्किल है। अपनी चूनर जलाकर ही दूसरे का दामन छींटा जा सकता है। आप अपने आर्ग्युमेंट में दम लाइए। गाली सिर्फ नीचता की निशानी है।
याद रखिये, किसी भी लड़ाई में आप कितना नीचे गिरते हैं ये सिर्फ आपके कैरेक्टर का सेर्टिफिकेट है।

Monday 4 April 2016

मिसिंग यू सुधा आंटी पार्ट 2

कल शांति विधान हो गया। विसर्जन पाठ कराते वक़्त भैया जी ने कहा कि प्रभु से विधान के समय हुए सभी कमियों की,गलतियों की माफ़ी मांग लेते हैं।

मैंने आपसे माफ़ी मांगी थी। बहुत कमियां जो रह गयीं।

आंटी, कल तक बहुत सम्भले हुए थे। पर वो विसर्जन पाठ कहीं इतना गहरा चुभा कि समझा नहीं सकती। हज़ारों बार आपने ही पूजा के आखिर में जिनवाणी में विसर्जन पाठ खोल के दिया था, पढ़ने को। कल भरे मंदिर की दूसरी वाली रो में जहाँ हम दस लक्षण की पूजा के टाइम हमेशा बैठते थे, वो देख कर बिखर गयी।

उधर आखिर बाईं ओर से मम्मी, फिर मैना आंटी फिर आप फिर मैं। ऐसा लगभग फिक्स्ड ही था। आप माइक पे पूजा पढ़ती थीं और धीरे से, मेरे बिना कुछ कहे, मेरी सामग्री का डब्बा उठा कर उसमें चांदी के फूल मिलाकर वापिस रख देती थीं।

कल विधान पढ़ा नहीं गया मुझसे। वहां बैठे सिर्फ मंदिर ही नहीं जाने कितनी और बाते याद आ रहीं थीं। दीवाली वाली मंदिर में आरती, भैया की शादी के कार्ड साथ में तैयार करना, आपका भाई को शादी वाले दिन  कंठा पहनाना, आपका मम्मी को डांटना, पापा से ज़िद्द करना, आपका मुझे भजन सिखाना। भजन वाली याद कांस्टेंट है, पिछली बार भी लिखा था।

कल तेरहवां दिन था। कल आपके जाने के सारे नियम धर्म पूरे हो गए। "आत्मा की शांति" थोडा भारी शब्द है और दिल पर किसी पत्थर जैसा। मैं इस्तेमाल नहीं करुँगी।

कल एहसास हुआ कि कह देना कितना ज़रूरी होता है। वो थोड़ी-बहुत उलटी-सीधी 6-7 लाइन की कविताओं के बाहर आपको कभी बताया ही नहीं कि आप कितनी ज़रूरी हैं। कि आप से कितना प्यार है। कि आप सचमुच माँ जैसे ही हैं।

कमी थोड़ी हम ही में है। बोल नहीं पाते। जताना नहीं आता, कमबख्त लिखवा लो। और आलसी इतने कि कभी-कभी ही लिखते हैं।
कल लगा काश आपको कह दिया होता। कभी एक बार ही सही, पर बता दिया होता कि आप हमारे लिए क्या है। वो साथ में तैयार होकर, प्रेम स्टूडियो जाकर एक फ्रेम करने लायक फ़ोटो खिंचवाने की इच्छा अधूरी ही रह गयी। 

कल दिल्ली जाने की ट्रेन नहीं मिली। चोट लग गयी है तो जाने का मन भी नहीं था। कल फिर किसी ने कहा कि आपने उनसे हमारी बहुत तारीफ करी है। क्यों की आपने इतने लोगों से मेरी इतनी तरीफ़? क्या मिल गया?

हम नहीं हैं इतने अच्छे।

होते तो शायद अंकल और पूजा भाभी का थोड़ा सा दुःख कम कर पाते। कुछ भी नहीं कर पा रहे पर हम। पर कहना क्या होता है, वो पता ही नहीं हमें।

आप भी तो सबको ऐसे छोड़ कर चल दीं।

पर आपसे न, अब एक वादा है। कह नहीं भी पाये तो अब लिखेंगे ज़्यादा। जताना सीख लेंगे, सीखने की कोशिश तो करेंगे ही।

आपके नाम पे आंसू  आते ही रहेंगे। उसमें कोई कुछ नहीं कर सकता। पर वो सारी मुस्कुराहटें, सारी यादें भी उतनी ही शिद्दत से जोड़ के रखेंगे। टाइम टू टाइम उनको संदूक से निकाल कर धो-पोंछ कर सबके साथ बाँट भी लेंगे।

आज दिल्ली वापिस जाना है। और यही सबसे मुश्किल लग रहा है। यहाँ आपके पास महसूस होता है। वहां न, ढेर काम है, यादों के लिए वक्त कम रहेगा, तकलीफ भी शायद महसूस कम हो।

पर वहां भी रात तो होगी। जब सोना होता है, जब काम नहीं होता, जब दिमाग और दिल एक साथ सोचते हैं, जब यादें बस की नहीं रहती...

तब तारों में खोजेंगे आपको। अब तो आप आसमान में है, तारा बन गयीं हैं, और तारे दिल्ली या कानपुर का फर्क तो करते नहीं।

तो रात को बालकनी से आसमान में खोजेंगे आपको। और देखिये, जल्दी मिल जाइयेगा, रात तक थक बहुत जाते हैं न...

मिस यू आंटी, विल कीप मिसिंग यू, ऑल्वेज़!
लव यू एंड आई नो, यू लव मी मोर।

कम बेक सून....
आपकी,
मैं।

Friday 25 March 2016

मिसिंग यू सुधा आंटी

बहुत मुश्किल है जो लिखने जा रही हूँ। सीने पे रखा कोई पत्थर है शायद जो सांस बेइंतेहा भारी किये दे रहा है। रह-रह कर हर वो छोटी से छोटी याद आँखों के सामने आ रही है, जो याद भी नहीं था कि याद है।

सुधा आंटी। जानती हैं, मैं आपको कुछ भी कह लूँ, रहेंगी आप मेरी माँ ही। माँ से भी बड़ी। बड़ी माँ। क्योंकि मेरी माँ को भी आप ही तो संभालती हैं। या संभालती थीं। तीन दिन पहले तक।

होली के अनगिन रंगों को वक़्त ने एकसाथ बदरंग कर दिया इस साल। आपको हमसे छीन कर। आपको और हमें अलग कर के।

आप जानती हैं, कलाई पे पहनने वाले ब्रेसलेट से लेकर भजन की डायरी में लिखे सारे भजनों में हैं आप। फ़ोन के फ़ोटो एल्बम में से लेकर ज़िन्दगी की हर बदलती तारिख-ओ-तस्वीर में आपका अक्स है।

आपके साथ जो पहले-पहल की याद है वो क्लास टेंथ की है।  मंदिर के दस-लक्षण के शाम वाले भजन कम्पटीशन को जीतने वाली याद। हमने साथ भजन गाया था, इतनी शक्ति हमें देना दाता।

पर्पल चमकते रैपिंग पेपर में 4 ग्लास का सेट मिला था, फर्स्ट प्राइज।  आपको और मुझे। हमारे रिश्ते की ठेस बुनियाद उन खोखले स्टील के गिलासों से पड़ी थी!

मेरे टेंथ के पेपर शुरू होने के एन पहली रात आप ट्रे सजा के कार्ड और गुलदस्ते लाईं थीं। पेन भी। ऑल द बेस्ट कहने को। उसी पेन से एग्जाम लिखे भी थे मैंने।

मंदिर के प्ले लिखवाये हैं आपने मुझसे। मुझे प्ले में ही सही, तीर्थंकर भगवान बनाया है आपने।

ऐसी और न जाने कितनी यादें हैं जिन्होंने नींद की चिड़िया को किसी दूर गाँव भेज दिया है। मन हल्का होने का नाम ही नहीं लेता।

आपके जाने पे एहसास हो रहा है कि दुःख कोई पहाड़ नहीं है, जैसा ये सब दुनिया वाले कहते हैं। ये दुःख तो रेशम को काटने वाले कीड़े की तरह हैं। धीरे-धीरे रेशम को खा जाने वाले कीड़े के जैसा। कपड़ा पूरा कटता भी नहीं और काम का भी नहीं रह जाता। बिलकुल हमारे मन की तरह।

आँखों के आँसूओं की कोई बात नहीं करना चाहती मैं। वो तो यूं भी बहने का काम किस्मत में लिखवा के आये हैं। उनका जॉब प्रोफाइल है, बहना। दर्द है, तो ये भी हैं।

आंटी आप जानती हैं न, आप बहुत से वादे अधूरे छोड़ के गयी हैं? आप ये भी जानती हैं न कि आपके पीछे जितने भी रह गए हैं अब वो पूरी तरह से पूरे कभी नहीं हो पाएंगे?

पर आपसे कोई शिकायत नहीं है। जानबूझ के तो आप कभी ऐसा नहीं करेंगी न! पर आंटी, आप ये क्यों नहीं बता देती कि हम अब रहें कैसे?

बैठक के वक्त कितने लोगों ने आपके बारे में कितना कुछ कहा। मेरे पास आपको शब्दों में ढालने के लिए अल्फ़ाज़ नहीं हैं। मुझे ये पता है कि मेरे सर पर जिस आसमान का साया है, उसमें एक सुराख़ हुआ है। बहुत बड़ा सुराख़। न भरने वाला सुराख़।

ज़िन्दगी है तो जीना पड़ेगा और दुःख है तो सहना पड़ेगा।
ऐसा भी नहीं है कि हम पिछले 3 दिन में मुस्कुराये न हों। आज शाम तो हंसे भी थे। पर मन नहीं लग रहा। ज़रा सा भी।

आप होतीं तो कॉफ़ी पिलाके इधर-उधर की बातें होतीं, और, कहीं न कहीं पढाई छोड़ने की बात एक बार तो आती ही।

मिसिंग यू आंटी। बहुत ज़्यादा। फ़िकरा सा बंध गया है है आपकी यादों का,खुशबू की तरह महकता है, न सोने दे रहा है न जागने।

पर मुझे न विश्वास है, आप जहाँ भी हैं, बहुत खुश हैं। और आपकी वो मरहम की राहत सी मुस्कान किसी दिल को तो सुकून दे ही रही होगी।

वहां भी कोई वृषाली होगी, जिसे आपकी ज़रूरत होगी। यकीन मानिये, आपके जैसे इंसान की ज़रूरत सबको होती है। सबको।

बस आप खुश रहिएगा। और जल्दी लौट आइयेगा। किसी भी तरह, किसी भी शक्ल में, किसी भी रूप में ।
आप भी हम सबके बिना बहुत तो नहीं रह पाएंगी।

लव यू आंटी। लव यू वैरी मच। एंड आई नो, यू लव अस एक़ुअल्ली। मे बी, मोर।

कम बैक सून, प्लीज़...

Monday 4 January 2016

काश हम भी कबूतर होते

परसों दिल्ली एअरपोर्ट पर चेक-इन कर के बोर्डिंग के इंतज़ार में बैठी थी। जहाँ बैठी थी, वहां कई परफ्यूम के कीओस्क थे। कीओस्क माने वो छोटे-छोटे एक शेल्फ वाले स्टाल जिनको महंगे ब्रांड होने के वजह से लोग स्टाल कहते नहीं हैं। स्टाल चाय के होते हैं, पान के होते हैं... वर्साचे, अरमानी, पार्कोस के कीओस्क होते हैं।

तो कहाँ थे? हाँ, परफ्यूम। भीनी-भीनी खुशबू थी हवा में। इसी खुशबू में आते-जाते लोगों को एअरपोर्ट नाम के उस सुपर ब्रांड्स के सुपर मॉल में देख रही थी। कोई और दिन होता, तो बाजार घूमने की भीड़ में मैं भी शुमार होती। इन्हीं परफ्यूम के कीओस्क की भूल-भुलैय्या के बीच से जाने कैसे एक कबूतर की गुटर-गूं सुनाई पड़ी।

आँखों में मोटे-मोटे आँसू धरे थे... कबूतर कुछ धुंधला सा ही दिख रहा था। दरअसल, सिक्यूरिटी-चेक में एक पसंदीदा कांच की बोतल बैग से निकलवा कर फ़ेंक दी गयी थी। बताया गया, रेड अलर्ट है, हम कुछ नहीं कर सकते।

बांवरा मन, किसी से भी जुड़ जाता है। चीज़ों से भी। उसी बोतल में सोचा था एक मनी प्लांट लगाएंगे। पर बोतल निर्ममता से कचरे के डब्बे में चली गयी। उसी के साथ पेड़ लगाने का ख्वाब भी चला गया।

पठानकोट पर हुए हमले की करारी मार टूटे ख्वाब से महसूस हुई थी। वहां ड्यूटी ऑफिसर से थोड़ी बदतमीज़ी भी कर गयी मैं। अखिलेश चौधरी नाम था उनका। माफ़ी मांगी बाद में, पर मन में अफ़सोस अब भी है। वे सिर्फ अपनी ड्यूटी पे थे, सशक्त थे, मेरे मन की न रख पाने को मजबूर थे।

इसी मसोस-अफ़सोस में दिखा ये कबूतर। न इसके पास बोर्डिंग पास था, न इसने जूते-जैकेट उतार के सिक्यूरिटी मशीन को दिखाया था, न इसने अपनी 500 ml की पानी की बोतल को जबरन पी कर 100 ml किया था।

अपने ही मुल्क में सफ़र करने का जुर्म नहीं कर रहा था ये। अपने ही मुल्क में इंसान होने का गुनहगार नहीं था ये।

इसने बस पर फैलाये थे और आ बैठा था इन महंगे परफ्यूम की शीशियों पर... जिनको आम आदमी की पहुँच के बहुत बाहर रखा जाता है।

नए साल में फैली पठानकोट की दहशत इसके दिल में नहीं थी... कुछ माटी के लालों के उजड़े चमनों के दर्द से इसका कोई वास्ता नहीं था। एक पेड़ लगाने की अधूरी ख्वाइश इसको कभी नहीं सालेगी।

कई बार सुना है, दुःख चाहे जितना भी बड़ा क्यों न हो, उसका एहसास तभी होता है, जब वो खुद पे गुज़रे। एक कांच की बोतल के फिंकने से कांच की चुभन सा गड़ा था ये हमला।

वहां पठानकोट में अभियान अब भी जारी है... पर गूँज उस 24 किलोमीटर के रेडियस वाले एयर बेस तक नहीं सीमित है। गूँज सारे देश में है। कहीं एअरपोर्ट की बढ़ी सुरक्षा जांच में, कहीं बम की अफवाह से खाली होती ट्रेनों में, कहीं पाकिस्तान से सीधा लोहा लेने की सियासी मांगों में।

आंच किसी के भी घर में लगे, राजनैतिक रोटियां उसपे सिक ही जाती हैं। इस सियासत, बगावत, मुहीम से भी इस कबूतर का कोई लेना-देना नहीं।

वो किसी मुल्क का नहीं। वो हर मुल्क का है। कहीं लाहौर से आया कबूतर भी तो हो सकता है वो। पर वो घुसपैठिया नहीं। वो उन्हीं पैरों से मंदिर का आँगन छू सकता है और मस्जिद का गुम्बद भी। कबूतर जहाँ का भी हो, जैसा भी हो, शांति का ही प्रतीक है।

आंसू भरी आँखों का आराम है। दर्द में उभरी हल्की सी मुस्कान की वजह है। अपने ही वतन में कोई शक के दायरे से बाहर नहीं। घर तो है, पर हम घरवाले नहीं। उस कबूतर को इस बे-दरी का कोई दंश कहाँ।

वो तो मन-मौजी जहाँ चाहे उड़ जाये। काश होते न हम भी कबूतर... उड़ जाते किसी ऐसी जगह जहाँ सरहदों की मिलकियत न हो, जहाँ सैयादों का डर न हो।

चुप परवाज़ भरते... और जा बैठते दुश्मन के ही किसी ठिकाने पर... किसी टूटे दिल पर मरहम-सा बनकर...
क्योंकि इंसान कहीं भी हो, कैसा भी हो, दोस्त हो या दुश्मन हो, दिल के सुराखों को बारूद से नहीं भर सकता।

सच, काश हम कबूतर होते...

Sunday 20 December 2015

क्योंकि यूं तो होता ही आया है

रोज़ हिदायतें मिलती हैं, "शाम को 8 बजे के बाद बाहर मत घूमा करो!"
"7 बजे के बाद ऑटो मत लिया करो!"
"सर्दी हो रही है शामों को अकेले तो बिलकुल मत निकला करो!"

हर रोज़ फ़ोन के उस पार से आती उन हिदायतों को मैं सुनती, और लगभग रोज़ ही इन हिदायतों का कुछ नही होता। पापा से सुनने को भी मिल जाता कि अब सुनने की आदत रही नहीं तुझमें।

दिल्ली जैसे शहर में जहाँ की सड़कें रास्तों से ज़्यादा लंबी पड़ती हैं, 7 या 8 बजे की समयसीमा निभाना मुश्किल है। सो इसी वजह से आखिरी लिमिट के कुछ आधा घंटे ऊपर, 8:30 बजे, एक शनिवार की शाम मैं ऑटो लेकर दिल्ली आई.आई.टी की तरफ चली। वहीं थोड़ा आगे हौज़-ख़ास विलेज का मोड़ है। टर्न लेते वक़्त ऑटो गटर लेन में फँस गया। इसमें कुछ नया नहीं है। अक्सर थ्री-व्हीलर इस मोड़ पर सड़क की इस ढलान में फंस जाते हैं।

ऑटो वाला उतर कर ऑटो पीछे धकेलने लगा। ट्रैफिक, जो शनिवार शाम की वजह से थोडा ज़्यादा ही था, हमारे ऑटो की वजह से पलभर को थम गया। इसी में एक गाड़ी वाला ऑटो के बिल्कुल पास गाड़ी लगाते हुए बोला, "मैडम इसके बस की नहीं। कहो तो हम छोड़ दें?"

अबतक ऑटो गटर लेन से निकल गयी थी। ऑटो वाला औसत से थोड़ी ज़्यादा तेज़ ऑटो चलाकर आगे निकल गया।

10 मिनट बाद गंतव्य पर पहुंचे। ऑटो से उतरकर मैं पैसे देकर मुड़ी ही थी कि ऑटो वाला बोला, "मैडम आप ज़्यादा मत सोचना, ये सब तो हो ही जाता है।"

मैं बिना कुछ बोले आगे बढ़ गयी। वाकई कहाँ नया था कुछ इसमें। ये तो होता ही आया है। पिछले 10 मिनट से मैं खुद में बंधी बैठी थी... रह-रह कर उन पीले दांतो वाली हंसी से कोफ़्त हो रही थी... उस गाड़ी से उठती तेज़ शराब की बू मेरी साँसों को जैसे अब भी गन्दा कर रही थी... पर क्या फर्क पड़ता था?

ये सब तो होता ही आया है।

जानते हैं उस पल पापा की हिदायतें न मानने के लिए खुद को झिड़क दिया था। क्या ज़रूरत थी मुझे इस वक़्त निकलने की? हाथ की कंपन संभालते हुए घडी देखी तो 9 भी नहीं बजा था।

फ़िर ज़हन में एक ख्याल और आया। क्या वाकई इस शहर में एक लड़की का भरे बाज़ार की मेन रोड से रात 8:40 पर निकलना इतना बड़ा जुर्म है? क्या गाडी का शीशा नीचे कर शाम के ऐसे वक़्त शराब के नशे में धुत्त
लड़के, माफ़ कीजियेगा, आदमियों को कुछ भी कहने का हक़ है?

क्या उनका अपने घर से निकालकर ये सब करना इसलिए सही है क्योंकि वो लड़के हैं, और, मेरा सूरज के साथ ही अपनी आज़ादी को भी दिन के लिए अलविदा कह देना क्योंकि मैं लड़की हूँ?

खुद से ही चिढ हो आई। मेरी गलती नहीं थी कि कुछ जानवरों को भगवान ने गलती से इंसान बनाया। मेरी गलती नहीं थी कि दिल्ली जाम होती है। मेरी गलती नहीं थी कि उस शहर से तहज़ीब एक खोती जागीर है।

तो क्या मैं यूं ही पीछे मुड़-मुड़ कर ये देखती रहूँ कि कहीं मेरा पीछा तो नहीं हो रहा? क्या करूँ? कितनी एप्प डाउनलोड करूँ, कितने स्पीड डायल लगाऊँ?
अपने साथ कितने केअर टेकर लेकर चलूँ साथ कि खुद को सेफ महसूस कर सकूं?

हर रोज़ अख़बार पटे पड़े होते हैं रेप, छेड़छाड़ की ख़बरों से। "शोहदे" नाम का एक फैंसी टर्म भी खोज लिया है पत्रकार परिवार ने। पकडे जाने पर क्या सज़ा है इन लोगों को?

सच तो ये है कि एक लड़की के ऊपर एसिड फ़ेंक देने जैसी हैवानियत की सज़ा ज़मीन गबन करने की सज़ा से भी कम है। और भगवान, अल्लाह, ईसा सब मिलके न करें, गर ये हैवानियत किसी 17 साल 364 दिन के अवयस्क ने कर दीं, तो सुधार की गुंजाईश में उसे 2 साल के भीतर ही बाल सुधार गृह से मुक्ति मिल जायेगी।

ये सब जब वो पकड़ा जाये।

इस समाज में औरत होना सबसे बड़ा जुर्म है। घर वाले सौ पाबंदियों में लड़की को रख सकते हैं, पर आधी रात को घर लौटते लड़के को सीख नहीं दे सकते की लड़की से बात करने की तमीज क्या है।

लड़की को संस्कारों की मूर्ति बना देंगे, ताकि एक रोज़ हाथ में चाय की ट्रे पकड़ा कर उसकी देखवकी परेड करा सकें, पर लड़के को एक बार उस चाय में पड़ने वाले दूध-पानी का नाप नहीं सिखाएंगे।

जब तक ये नहीं बदलता न मेरे दोस्त, यूं ही भरे बाज़ार, हर शाम मेरे जैसे लड़कियाँ डरती रहेंगी। कंधे में निगाहें छुपाकर पीछे पलट-पलट कर देखती रहेंगी।

पर मुझे शिकायत का क्या हक़? इन्साफ की बदलाव की उम्मीद का क्या हक़? अपने ही शहर में, वो शहर जो देश की राजधानी है, वहां लड़की होकर महफूज़ ज़िन्दगी मांगने का क्या हक़?

क्योंकि इसमें नया क्या है? क्योंकि यूं तो होता ही आया है।